Description
कहते हैं कि ‘जो महाà¤à¤¾à¤°à¤¤ में नहीं है वो à¤à¤¾à¤°à¤¤ में नहीं है।’ कà¥à¤¯à¥‹à¤‚कि महाà¤à¤¾à¤°à¤¤ का वैचारिक, सामाजिक और पारिवारिक फलक इतना वà¥à¤¯à¤¾à¤ªà¤• और अकà¥à¤·à¥à¤£à¥à¤¯ है कि हर बार कà¥à¤› शेष रह ही जाता है। इसी धारणा से पà¥à¤°à¤à¤¾à¤µà¤¿à¤¤ होकर लेखक ने महाà¤à¤¾à¤°à¤¤ को à¤à¤• अलग ही दृषà¥à¤Ÿà¤¿à¤•à¥‹à¤£ से देखा, समà¤à¤¾ और महसूस किया है। किताब में महाà¤à¤¾à¤°à¤¤ के यà¥à¤¦à¥à¤§ के बाद उपजे हालात को कारण, कारà¥à¤¯ और परिणाम के à¤à¤• आतà¥à¤®à¤µà¤¿à¤¶à¥à¤²à¥‡à¤·à¤£à¥€à¤¯ शाबà¥à¤¦à¤¿à¤• धागे से बाà¤à¤§à¤¾ है। साथ ही यà¥à¤¦à¥à¤§ के बाद बचे पांडà¥à¤ªà¥à¤¤à¥à¤°à¥‹à¤‚ के अतिरिकà¥à¤¤ धृतराषà¥à¤Ÿà¥à¤°, गांधारी, à¤à¥€à¤·à¥à¤®, कà¥à¤‚ती, दà¥à¤°à¥Œà¤ªà¤¦à¥€, विदà¥à¤° आदि के मनःसà¥à¤¤à¤¾à¤ª और आतà¥à¤®à¤®à¤‚थन को पà¥à¤°à¥‡à¤®, घृणा, महतà¥à¤µà¤¾à¤•à¤¾à¤‚कà¥à¤·à¤¾, सà¥à¤µà¤¾à¤°à¥à¤¥, तà¥à¤¯à¤¾à¤—, पà¥à¤°à¤¤à¤¿à¤¶à¥‹à¤§ आदि के सà¤à¥€ रूपों में चितà¥à¤°à¤¿à¤¤ करते हà¥à¤ उस धारà¥à¤®à¤¿à¤• जड़ता पर à¤à¥€ पà¥à¤°à¤¶à¥à¤¨à¤šà¤¿à¤¨à¥à¤¹ लगाया है, जिसे तोड़ते हà¥à¤ यà¥à¤¦à¥à¤§ के कारणों को मिटाया जा सकता था। शिलà¥à¤ª और à¤à¤¾à¤·à¤¾à¤¯à¥€ सामरà¥à¤¥à¥à¤¯ से इसके à¤à¤¾à¤µà¤¨à¤¾à¤¤à¥à¤®à¤• और मनोवैजà¥à¤žà¤¾à¤¨à¤¿à¤• पकà¥à¤·à¥‹à¤‚ को उà¤à¤¾à¤°à¤¨à¥‡ के साथ-साथ रचना को पठनीयता और संपà¥à¤°à¥‡à¤·à¤£à¥€à¤¯à¤¤à¤¾ पà¥à¤°à¤¦à¤¾à¤¨ करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है।
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