Description
अपनों ने ही आसुरी अंश से श्रापित बताया। मुझे अपनी ही माता का हत्यारा बना दिया, मातृभूमि से निष्काषित कर दिया। ऐसे में जिन असुरों ने मेरा साथ दिया, मुझे अपनाया, मुझे सम्मान दिया तो एकचक्रनगरी के राजकुमार सुर्जन से असुरेश्वर दुर्भीक्ष बनकर पातालपुरी के सिंहासन को स्वीकार कर उनके उत्थान का प्रण लेकर क्या भूल की मैंने ? वैरागी के अंश से जन्मा तो तनिक वैराग्य भाव तो मुझमें भी था, राजसत्ता का लालच न था, किन्तु अपमान को तो बड़े से बड़ा महाऋषि भी नहीं भूल सकता। तो छेड़ दिया मैंने अपना प्रतिशोध युद्ध ! किन्तु क्या विजय के उपरान्त भी किसी निर्दोष के प्राण लिए? नहीं ! फिर भी सारे विनाश का दोष मुझ पर लगाकर वर्षों की श्रापित सुप्तावस्था में भेज दिया। जब आँखें खुली तो मैं अपना सबकुछ खो चुका था। पातालपुरी का शासन वापस मिला, मेरे नाम का भय समग्र संसार में फैलने लगा, किन्तु जीवन वर्षों तक रिक्त सा रहा । फिर एक दिन अकस्मात ही युद्ध में चंद्रवंशी युवराज सर्वदमन के सामने आते ही मेरे सारे घाव हरे हो गये | किन्तु वहाँ भी अपना रौद्र रूप धारण करने से पूर्व ही एक स्त्री मेरे सामने आ गयी और हृदय में धधकती प्रतिशोध की अग्नि लिए मुझे शस्त्रों का त्याग कर पीछे हटना पड़ा। क्योंकि वो स्त्री जो सर्वदमन के रक्षण को आयी उसके समक्ष मैं शस्त्र तो क्या दृष्टि उठाने योग्य भी नहीं था। क्या इस अवरोध को पार कर कभी मैं अपने हृदय में धधक रही प्रतिशोध की अग्नि को शांत कर सकूँगा ? बस इसी प्रश्न के इर्द गिर्द घूमती है मेरे जीवन की ये गाथा।
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